raham ai gham-e-jaanaaN baat aa gaii yaaN tak
रहम ऐ गम-ए-जानाँ बात अा गयी याँ तक
दश्त-ए-गर्दिश-ए-दौराँ और मेरे गरेबाँ तक
कौन सर बा कफ होगा, जश्न-ए-दार क्या होगा
जोक-ए-सरफरोशी है एक दुश्मन-ए-जाँ तक
हमसफीर फिर कोई हादसा हुआ शायद
इक सजब उदासी है गुलिस्ताँ से ज़िन्दाँ तक
हमनशीं बहारों ने कितने आशियाँ फूंके
हम तो कर ही क्या लेते, सो गये निगेहबाँ तक
इक हम ही लगायेंगे खार-ओ-खस को सीने से
वरना सब चमन में हैं, मौसम-ए-बहाराँ तक
मेरे दस्तक-ए-वहशत को आज रोक लो वरना
फसिला बहुत कम है हाथ से गरेबाँ तक
है 'शमीम' अज़ल ही से सिलसिला मुहब्बत का
हलका-ए-सलासिल से गेसू-ए-परेशाँ तक
शमीम जयपुरी
Tuesday, October 9, 2007
रहम ऐ गम-ए-जानाँ बात अा गयी याँ तक
Labels: Ghazals, Mushaira, Poets, Shamim Jaipuri, गज़ल, मुशायरा, शमीम जयपुरी, शायर
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