raat bhar kya kya yaqeen-o-wehm mein chashmak rahi
रात भर क्या क्या यकीं-ओ-वहम में चश्मक रही
ये गुमां था या दर-ए-दिल पर कोई दस्तक रही
हम तो सारी उम्र अश्कों के सहारे जी लिये
जिन्दगी तो बेवफा थी इक तबस्सुम तक रही
उम्र भर सबकी निगाहों में खटकता ही रहा
जुर्म इतना था के हक-गोई मेरा मसलक रही
अब ना वो संग-ए-मलामत है ने वो तानों का शोर
उसकी बस्ती में ये रौनक भी मेरे दम तक रही
साया-ए-ज़ुल्फ-ए-सनम की याद तेरा शुक्रिया
रात अातिश खान-ए-दिल में बड़ी थंडक रही
शमीम जयपुरी
Tuesday, October 9, 2007
रात भर क्या क्या यकीं-ओ-वहम में चश्मक रही
Labels: Ghazals, Mushaira, Poets, Shamim Jaipuri, गज़ल, मुशायरा, शमीम जयपुरी, शायर
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