yaad : dasht-e-tanhaii
दश्त-ए-तनहाई में ऐ जान-ए-जहाँ लरज़ाँ हैं
तेरी आवाज़ के साये, तेरे होठों के सराब
दश्त-ए-तनहाई में दूरी के खस-ओ-खाक कितने
खिल रहे हैं तेरे पेहलू के समन और गुलाब
उठ रही है कहीं कुरबत से तेरी साँस कि अाँच
अपनी खुशबू से सुलगती मधम मधम
दूर उफ्कार चमकती हुइ कतरा कतरा
खिल रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम
किस कदर प्यार से ऐ जान-ए-जहाँ रखा है
दिल के रुखसार पे इस वक्त तेरी याद ने हाथ
यूँ गुमाँ होता है गरचे अभी सुबह-ए-फिराक
ढल गया हिज्र का दिन, आ भी गयी वस्ल की रात
फैज़ अहमद फैज़
Saturday, October 6, 2007
याद: दश्त-ए-तनहाई
Labels: नज्म, फैज़ अहमद फैज़, शायर
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