Wednesday, October 31, 2007

क्या ऐसे कम-सुकन से कोई गुफ्तगू करे

kyaa aise kam-suKhan se ko’ii guftaguu kare

क्या ऐसे कम-सुकन से कोई गुफ्तगू करे
जो मुस्तकिल सुकूत से दिल को लहू करे

अब तो हमें भी तर्क-ए-मरासिम का दुख नहीं
पर दिल ये चाहता है के आगाज़ तू करे

तेरे बगैर भी तो गनीमत है ज़िन्दगी
खुद को गँवा के कौन तेरी जुस्तजू करे

अब तो ये आरजू है के वो जख़्म खाइये
ता-ज़िन्दगी ये दिल ना कोई आरजू करे

तुझ को भुला के दिल है वो शर्मिंदा-ए-नज़र
अब कोई हादिसा ही तेरे रु-ब-रू करे

चुप चाप अपनी आग में जलते रहो "फरज़"
दुनिया तो गर्ज-ए-हाल से बे-आबरू करे

कम-सुकन : who doesn’t talks much
मुस्तकिल : continuously
सुकूत : silence
मरासिम : relationships
आगाज़ : beginning
जुस्तजू : try
आरजू : wish
शर्मिंदा : shamed
रू-ब-रू : face to face
बे-आबरू : deprive of honour

अहमद फरज़

No comments: