Saturday, October 20, 2007

मेरी अक्ल-ओ-होश की सब हालातें

meri aql-o-hosh ki sab haalatein

मेरी अक्ल-ओ-होश की सब हालातें
तुमने साँचें में जुनूँ में ढाल दीं
कर लिया था मैने अहद-ए-तर्क-ए-इश्क
तुमने फिर बाहें गले में डाल दीं

यूँ तो अपने कासिदान-ए-दिल के पास
जाने किस किस के लिये पैगाम हैं
पर लिखे हैं मैने जो औरों के नाम
मेरे वो ख़त भी तुम्हारे नाम हैं

ये तेरे ख़त, तेरी खुश्बू, ये तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल
मता-ए-जान हैं तेरे कौल-ओ-कसम की तरह
गुज़िश्ता साल में इन्हें गिन के रखा था
किसी गरीब की जोड़ी हुई रकम की तरह

कितने ज़ालिम हैं जो ये कहते हैं
तोड़ लो फूल, फूल छोड़ो मत
बागबाँ ! हम तो इस ख़याल के हैं
देख लो फूल, फूल तोड़ो मत

है मुहब्बत, हयात की लज्जत
वरना कुछ लज्जत-ए-हयात नहीं
क्या इजाज़त है, एक बात कहूँ
वो....मगर खैर कोई बात नहीं

शर्म, दहशत, झिझक, परेशानी
नाज़ से काम क्यूँ नहीं लेतीं
आप, वो, जी, मगर, ये सब क्या है
तुम मेरा नाम क्यूँ नहीं लेतीं

सालहा साल और एक लम्हा
कोई भी तो ना इनमें बल आया
खुद ही एक दर पे मैने दस्तक दी
खुद ही लड़का सा मैं निकल आया

जौं एलिया

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