Wednesday, October 31, 2007

दिन एक सितम, एक सितम रात करो हो

din ek sitam, ek sitam raat karo ho

दिन एक सितम, एक सितम रात करो हो
वो दोस्त हो दुश्मन को भी तुम मात करो हो

हम खाक-नशीं, तुम सुखन-आरा-ए-सर-ए-बाम
पास आ के मिलो, दूर से क्या बात करोहो

हमको जो मिला है, वो तुम्हीं से तो मिला है
हम और भुला दें तुम्हें, क्या बात करो हो !

दामन पे कोई छींट, ना खंजर पे कोई दाग
तुम कत्ल करो हो के करामात करो हो

बकने भी दो अजीज़ को, जो बोले है सो बके है
दीवाना है, दीवाने से क्या बात करो हो

कलीम अजीज़

मुझ को शिकस्त-ए-दिल का मजा याद आ गया

mujh ko shikast-e-dil ka mazaa yaad aa gayaa

मुझ को शिकस्त-ए-दिल का मजा याद आ गया
तुम क्यूँ उदास हो गये, क्या याद आ गया

कहने को ज़िन्दगी थी बहुत मुख्तसर मगर
कुछ यूँ बसर हुई के खुदा याद आ गया

बरसे बगैर ही जो घटा गिर के खुल गयी
एक बे-वफा का अहद-ए-वफा याद आ गया

माँगेंगे अब दुआ के उसे भूल जायें हम
लेकिन जो वो बावक्त-ए-दुआ याद आ गया !

हैरत है तुमको देख के मस्जिद में ऐ खुमार
क्या बात हो गयी जो खुदा याद आ गया

खुमार बाराबंकवी

क्या ऐसे कम-सुकन से कोई गुफ्तगू करे

kyaa aise kam-suKhan se ko’ii guftaguu kare

क्या ऐसे कम-सुकन से कोई गुफ्तगू करे
जो मुस्तकिल सुकूत से दिल को लहू करे

अब तो हमें भी तर्क-ए-मरासिम का दुख नहीं
पर दिल ये चाहता है के आगाज़ तू करे

तेरे बगैर भी तो गनीमत है ज़िन्दगी
खुद को गँवा के कौन तेरी जुस्तजू करे

अब तो ये आरजू है के वो जख़्म खाइये
ता-ज़िन्दगी ये दिल ना कोई आरजू करे

तुझ को भुला के दिल है वो शर्मिंदा-ए-नज़र
अब कोई हादिसा ही तेरे रु-ब-रू करे

चुप चाप अपनी आग में जलते रहो "फरज़"
दुनिया तो गर्ज-ए-हाल से बे-आबरू करे

कम-सुकन : who doesn’t talks much
मुस्तकिल : continuously
सुकूत : silence
मरासिम : relationships
आगाज़ : beginning
जुस्तजू : try
आरजू : wish
शर्मिंदा : shamed
रू-ब-रू : face to face
बे-आबरू : deprive of honour

अहमद फरज़

Tuesday, October 30, 2007

तन्हा इश्क के ख़्वाब ना बुन

tanhaa ishq ke khwaab na bun


तन्हा इश्क के ख़्वाब ना बुन
कभी हमारी बात भी सुन

थोड़ा गम भी उठा प्यारे
फूल चुने हैं खार भी चुन

सुख़ की नींदें सोने वाले
मरहूमी के राग भी सुन

किता

तन्हाई में तेरी याद
जैसे एक सुरीली धुन

जैसे चाँद की ठंडी लौ
जैसे किरणों कि कन मन

जैसे जल-परियों का ताज
जैसे पायल की छन छन

नसीर काज़मी

Sunday, October 28, 2007

लबों पे फूल खिलते हैं किसी के नाम से पहले

laboN pe phool khiltay haiN kisi ke naam se pahle

लबों पे फूल खिलते हैं किसी के नाम से पहले
दिलों के दीप जलते हैं चराग़-ए-शाम से पहले

कभी मंजर बदलने पर भी किस्सा चल नहीं पाता
कहानी ख़तम होती है कभी अंजाम से पेहले

यही तारे तुम्हारी आँख कि चिलमन में रेहते थे
यही सूरज निकलता था तुम्हारे बाम से पहले

हुई है शाम जंगल में परिंदे लौटे होंगे
अब इनको किस तरह रोकें नवाह-ए-दाम से पहले

या सारे रंग मुर्दा थे तुम्हारी शक्ल बनने तक
या सारे हर्फ मुहमल थे तु्म्हारे नाम से पहले

हुआ है वो अगर मुंसिफ तो अजमद इह्तियताँ हम
सज़ा तस्लीम करते हैं किसी इल्जाम से पहले

अमज़द इस्लाम अमज़द

Friday, October 26, 2007

तुझसे बिछड़ के हम भी मुकद्दर के हो गये

tujhse bicchaR ke ham bhi muqaddar ke ho gaye

तुझसे बिछड़ के हम भी मुकद्दर के हो गये
फिर जो भी दर मिला है उसी दर के हो गये

फिर यूँ हुआ के गैर को दिल से लगा लिया
अंदर वो नफरतें थीं के बाहर के हो गये

क्या लोग थे के जान से बढ़ कर अजीज थे
अब दिल से मेह नाम भी अक्सर के हो गये

ऐ याद-ए-यार तुझ से करें क्या शिकायतें
ऐ दर्द-ए-हिज्र हम भी तो पत्थर के हो गये

समझा रहे थे मुझ को सभी नसेहान-ए-शहर
फिर रफ्ता रफ्ता ख़ुद उसी काफिर के हो गये

अब के ना इंतेज़ार करें चारगर का हम
अब के गये तो कू-ए-सितमगर के हो गये

रोते हो एक जजीरा-ए-जाँ को "फरज़" तुम
देखो तो कितने शहर समंदर के हो गये

अहमद फरज़

Thursday, October 25, 2007

फिक्र-ए-तामीर-ए-आशियाँ भी है

fikr-e-taameer-e-aashiaN bhi hai

फिक्र-ए-तामीर-ए-आशियाँ भी है
खौफ-ए-बे माहरी-ए-खिजाँ भी है

खाक भी उड़ रही है रास्तों में
आमद-ए-सुबह-ए-समाँ भी है

रंग भी उड़ रहा है फूलों का
गुंचा गुंचा सर्द-फसाँ भी है

ओस भी है कहीं कहीं लरज़ाँ
बज़्म-ए-अंजुमन धुआँ धुआँ भी है

कुछ तो मौसम भी है ख़याल अंगेज़
कुछ तबियत मेरी रवाँ भी है

कुछ तेरा हुस्न भी है होश-रुबा
कुछ मेरी शौकी-ए-बुताँ भी है

हर नफ्स शौक भी है मंजिल का
हर कदम याद-ए-रफ्तुगाँ भी है

वजह-ए-तस्कीं भी है ख़याल उसका
हद से बढ़ जाये तो गिराँ भी है

ज़िन्दगी जिस के दम से है नासिर
याद उसकी अज़ाब-ए-जाँ भी है

नासिर काज़मी

हम उन्हें वो हमें भुला बैठे

ham unheN vo hameN bhulaa baiThe

हम उन्हें वो हमें भुला बैठे
दो गुनह-गार ज़हर खा बैठे

हाल-ए-गम कह के गम बढ़ा बैठे
तीर मारे थे तीर खा बैठे

आँधियों जाओ अब करो आराम
हम खुद अपना दिया बुझा बैठे

जी तो हलका हुआ मगर यारों
रो के लुत्फ-ए-गम गँवा बैठे

बे-शहरों का हौसला ही क्या
घर में घबराये, दर पे आ बैठे

उठ के एक बे-वफा ने दे दी जान
रह गये सारे बा-वफा बैठे

जब से बिछड़े वो, मुस्कुराए ना हम
सबने चेहरा तो लब हिला बैठे

हश्र का दिन अभी है दूर "खुमार"
आप क्यूँ ज़ाहिदों में जा बैठे

खुमार बाराबंकवी

रंग बरसात ने भरे कुछ तो

rang barsaat ne bhare kuch to

रंग बरसात ने भरे कुछ तो
ज़ख्म दिल के हुए हरे कुछ तो

फुरसत-ए-बेखुदी गनीमत है
गर्दिशें हो गयीं परे कुछ तो

कितने शोरीदा सर थे परवाने
शाम होते ही जल मरे कुछ तो

ऐसा मिलना नहीं तेरा मिलना
दिल मगर जुस्तजू करे कुछ तो

आओ ! नासिर कोई गज़ल छेड़ें
जी बहल जायेगा अरे कुछ तो

नासिर काज़मी

Wednesday, October 24, 2007

किसे देखें कहाँ देखा ना जाये

kise dekhein kahaaN dekha na jaye

किसे देखें कहाँ देखा ना जाये
वो देखा है जहाँ देखा ना जाये

मेरी बरबादियोँ पर रोने वाले
तुझे महव-ए-फुगाँ देखा ना जाये

सफ़र है और गुरबत का सफ़र है
गम-ए-सद-कारवाँ देखा ना जाये

कहीं आग और कहीं लाशों के अंबार
बस ऐ दौर-ए-ज़मीँ देखा ना जाये

दर-ओ-दीवार वीराँ, शमा मद्धम
शब-ओ-गम का सामान देखा ना जाये

पुरानी सुहब्बतें याद आती है
चरागों का धुआ देखा ना जाये

भरी बरसात खाली जा रही है
सराबर-ए-रवाँ देखा ना जाये

कहीं तुम और कहीं हम, क्या गज़ब है
फिराक-ए-जिस्म-ओ-जाँ देखा ना जाये

वही जो हासिल-ए-हस्ती है नासिर
उसी को मेहेरबाान देखा ना जाये

Nasir Kazmi

Saturday, October 20, 2007

मेरी अक्ल-ओ-होश की सब हालातें

meri aql-o-hosh ki sab haalatein

मेरी अक्ल-ओ-होश की सब हालातें
तुमने साँचें में जुनूँ में ढाल दीं
कर लिया था मैने अहद-ए-तर्क-ए-इश्क
तुमने फिर बाहें गले में डाल दीं

यूँ तो अपने कासिदान-ए-दिल के पास
जाने किस किस के लिये पैगाम हैं
पर लिखे हैं मैने जो औरों के नाम
मेरे वो ख़त भी तुम्हारे नाम हैं

ये तेरे ख़त, तेरी खुश्बू, ये तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल
मता-ए-जान हैं तेरे कौल-ओ-कसम की तरह
गुज़िश्ता साल में इन्हें गिन के रखा था
किसी गरीब की जोड़ी हुई रकम की तरह

कितने ज़ालिम हैं जो ये कहते हैं
तोड़ लो फूल, फूल छोड़ो मत
बागबाँ ! हम तो इस ख़याल के हैं
देख लो फूल, फूल तोड़ो मत

है मुहब्बत, हयात की लज्जत
वरना कुछ लज्जत-ए-हयात नहीं
क्या इजाज़त है, एक बात कहूँ
वो....मगर खैर कोई बात नहीं

शर्म, दहशत, झिझक, परेशानी
नाज़ से काम क्यूँ नहीं लेतीं
आप, वो, जी, मगर, ये सब क्या है
तुम मेरा नाम क्यूँ नहीं लेतीं

सालहा साल और एक लम्हा
कोई भी तो ना इनमें बल आया
खुद ही एक दर पे मैने दस्तक दी
खुद ही लड़का सा मैं निकल आया

जौं एलिया

Friday, October 19, 2007

बख़्त से कोई शिकायत है ना अफ्लाक से है

bakht se koi shikayat hai na aflaak se hai

बख़्त से कोई शिकायत है ना अफ्लाक से है
यही क्या कम है के निस्बतत मुझे इस खाक से है

ख़्वाब में भी तुझे भुलूँ तो रवा रख मुझसे
वो रवैया जो हवा का खस-ओ-खशाक से है

बज़्म-ए-अंजुम में कबा खाक की पहनी मैने
और मेरी सारी फजीलत इसी पोशाक से है

इतनी रौशन है तेरी सुबह के दिल कहता है
ये उजाला तो किसी दीदा-ए-नमनाम से है

हाथ तो काट दिये कूज़गरों के हमने
मौके की वही उम्मीद मगर चाक से है

परवीन शाकिर

Thursday, October 18, 2007

रात यूँ दिल में तेरी खोयी हुई याद आई

raat yun dil mein teri khoyi hui yaad aayi

रात यूँ दिल में तेरी खोयी हुई याद आई
जैसे वीराने में चुपके से बाहर आ जाये
जैसे सेहराओं में हौले से चले बाद-ए-नसीम
जैसे बीमार को बे-वजह करार आ जाये

There are some good translations in English on Urdu Poetry blog.

नज़र-ए-अलीगढ़

nazr-e-aligarh

ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ
सरशार-ए-निगाह-ए-नरगिस हूँ, पा-बास्ता-ए-गेसू-संबल हूँ

हर आन यहाँ सेहबा-ए-कुहन एक साघर-ए-नौ में ढलती है
कलियों से हुस्न टपकता है, फूलों से जवानी उबलती है

जो ताक-ए-हरम में रोशन है, वो शमा यहाँ भी जलती है
इस दश्त के गोशे-गोशे से, एक जू-ए-हयात उबलती है

इसलाम के इस बुत-खाने में अस्नाम भी हैं और आज़ार भी
तहज़ीब के इस मै-खाने में शमशीर भी है और साघार भी

याँ हुस्न की बर्क चमकती है, याँ नूर की बारिश होती है
हर आह यहाँ एक नग्मा है, हर अश्क यहाँ एक मोती है

हर शाम है शाम-ए-मिस्र यहाँ, हर शब है शब-ए-शीराज़ यहाँ
है सारे जहाँ का सोज़ यहाँ और सारे जहाँ का साज़ यहाँ

ये दश्त-ए-जुनूँ दीवानों का, ये बज़्म-ए-वफा परवानों की
ये शहर-ए-तरब रूमानों का, ये खुल्द-ए-बरीं अरमानों की

फितरत ने सिखाई है हम को, उफ्ताद यहाँ परवाज़ यहाँ
गाये हैं वफा के गीत यहाँ, चेहरा है जुनूँ का साज़ यहाँ

इस फर्श से हमने उड़ उड़ कर अफ्लाक के तारे तोड़े हैं
नहीद से की है सरगोशी, परवीन से रिश्ते जोडें हैं

इस बज़्म में तेघें खेंचीं हैं, इस बज़्म में साघर तोड़े हैं
इस बज़्म में आँख बिछाई है, इस बज़्म में दिल तक जोड़े हैं

इस बज़्म में नेज़े खेंचे हैं, इस बज़्म में खंजर चूमे हैं
इस बज़्म में गिर-गिर तड़पे हैं, इस बज़्म में पी कर झूमे हैं

आ आ कर हजारों बार यहाँ खुद आग भी हमने लगाई है
फिर सारे जहाँ ने देखा है येह आग हमीं ने बुझाई है

यहाँ हम ने कमनदेँ डाली हैं, यहाँ हमने शब-खूँ मारे हैं
यहाँ हम ने कबायें नोची हैं, यहाँ हमने ताज़ उतारे हैं

हर आह है खुद तासीर यहाँ, हर ख़्वाब है खुद ताबीर यहाँ
तदबीर के पा-ए-संगीं पर झुक जाती है तकदीर यहाँ

ज़र्रात का बोसा लेने को, सौ बार झुका आकाश यहाँ
खुद आँख से हम ने देखी है, बातिल की शिकस्त-ए-फाश यहाँ

इस गुल-कदह पारीना में फिर आग भड़कने वाली है
फिर अब्र गरजने वाले हैं, फिर बर्क कड़कने वाली है

जो अब्र यहाँ से उट्ठेगा, वो सारे जहाँ पर बरसेगा
हर जू-ए-रवान पर बरसेगा, हर को-ए-गराँ पर बरसेगा

हर सर्द-ओ-समन पर बरसेगा, हर दश्त-ओ-दमन पर बरसेगा
खुद अपने चमन पर बरसेगा, गैरों के चमन पर बरसेगा

हर शहर-ए-तरब पर गुजरेगा, हर कसर-ए-तरब पर कड़केगा
ये अब्र हमेशा बरसा है, ये अब्र हमेशा बरसेगा

मज़ाज लखनवी

Wednesday, October 10, 2007

अलीगढ़ तराना

Aligarh Tarana

ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ
सरशार-ए-निगाह-ए-नरगिस हूँ, पा-बस्ता-ए-गेसू-संबल हूँ

ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ

जो ताक-ए-हरम में रोशन है, वो शमा यहाँ भी जलती है
इस दश्त के गोशे-गोशे से, एक जू-ए-हयात उबलती है
ये दश्त-ए-जुनूँ दीवानों का, ये बज़्म-ए-वफा परवानों की
ये शहर-ए-तरब रूमानों का, ये खुल्द-ए-बरीं अरमानों की
फितरत ने सिखाई है हम को, उफ्ताद यहाँ परवाज़ यहाँ
गाये हैं वफा के गीत यहाँ, चेहरा है जुनूँ का साज़ यहाँ

ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ

इस बज़्म में तेघें खेंचीं हें, इस बज़्म में सघर तोड़े हैं
इस बज़्म में आँख बिछा'ई है, इस बज़्म में दिल तक जोड़े हैं
हर शाम है शाम-ए-मिस्र यहाँ, हर शब है शब-ए-शीरज़ यहाँ
है सारे जहाँ का सोज़ यहाँ और सारे जहाँ का साज़ यहाँ
ख़ुद आँख से हम ने देखी है, बातिल की शिकस्त-ए-फाश यहाँ

ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ

जो अब्र यहाँ से उट्ठेगा, वो सारे जहाँ पर बरसेगा
हर जू-ए-रवाँ पर बरसेगा, हर कोह-ए-गराँ पर बरसेगा
हर सर्ग-ओ-समन पर बरसेगा, हर दश्त-ओ-दमन पर बरसेगा
ख़ुद अपने चमन पर बरसेगा, गैरों के चमन पर बरसेगा
हर शहर-ए-तरब पर गरजेगा, हर कसर-ए-तरब पर कड़केगा

ye abr hameshaa barsaa hai, ye abr hameshaa barsegaa
ye abr hameshaa barsaa hai, ye abr hameshaa barsegaa
ye abr hameshaa barsaa hai, ye abr hameshaa barsegaa
barsegaa, barsegaa, barsegaa…………………..

ये अब्र हमेशा बरसा है, ये अब्र हमेशा बरसेगा
ये अब्र हमेशा बरसा है, ये अब्र हमेशा बरसेगा
ये अब्र हमेशा बरसा है, ये अब्र हमेशा बरसेगा
बरसेगा, बरसेगा, बरसेगा...............

अस्रारुल हक मजाज

पहले तुम वक्त के माथे की लकीरों से मिलो

pehle tum waqt ke maathe ki lakeeroN se milo

पहले तुम वक्त के माथे की लकीरों से मिलो
जाओ फुटपाथ के बिखरे हुए हीरों से मिलो

इश्रत-ए-हुस्त में मसरूफ तो रहते हो मगर
वक्त मिल जाये तो हम जैसे फकीरों से मिलो



फूल हँसा, रोयी शबनम
अपना अपना जज्बा-ए-गम

हुस्त वो है जो आये नज़र
दिल को जियाता, आँख़ को कम

बेकल उत्साही

Tuesday, October 9, 2007

अपने हर हर लफ्ज का खुद आईना हो जाऊंगा

apne har har lafz ka khud aaiinaa ho jaaoongaa

दरीचों तक चले आये तुम्हारे दौर के खतरे
हम अपने घर से बाहर झांकने का हौसला भी खो बैठे



वो अपने वक्त के नशे में खुशियाँ छीन ले तुझसे
मगर जब तुम हँसी बाँटों तो उसको भुल मत जाना



अपने हर हर लफ्ज का खुद आईना हो जाऊंगा
उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊंगा

तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नहीं
मैं गिरा तो मसला बन कर खड़ा हो जाऊंगा

मुझ को चलने दो, अकेला है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो काफ़िला हो जाऊंगा

सारी दुनिया की नज़र में है मेरा अहद-ए-वफा
एक तेरे कहने से क्या में बेवफा हो जाऊंगा

वसीम बरेलवी

गाहे गाहे बस अब यही हो क्या

gaahe gaahe bas ab yahi ho kya

गाहे गाहे बस अब यही हो क्या
तुमसे मिलकर बहुत खुशी हो क्या

मिल रही हो बड़े तपाक के साथ
मुझके यक्सर बुला चुकी हो क्या

याद है अब भी अपने ख़्वाब तुम्हें
मुझे मिलकर उदास भी हो क्या

बस मुझे यूँही एक ख़याल आया
सोचती हो तो सोचती हो क्या

अब मेरी कोई ज़िन्दगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी ज़िन्दगी हो क्या

क्या कहा, इश्क जाविदानी है
आखिरी बार मिल रही हो क्या

हाँ, फजा याँ कि सोयी सोयी सी है
तो बहुत तेज रोशनी हो क्या

मेरे सब तंज बे-असर ही रहे
तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या

दिल में अब सोज़-ए-इन्तज़ार नहीं
शम-ए-उम्मीद ! बुझ गयी हो क्या

जौं एलिया

तेरा जलवा निहायत दिल नशीं है

teraa jalwaa nihaayat dil nashiin hai

तेरा जलवा निहायत दिल नशीं है
मुहब्बत लेकिन इस से भी हसीं है

जुनूँ कि कोई मंजिल ही नहीं है
यहाँ हर गाम, गाम-ए-अव्वलीं है

सुना है यूँ भी अक्सर ज़िक्र उनका
कि जैसे कुछ ताल्लुक ही नहीं है

मसीहा बन के जो निकले थे घर से
लहू में तर उन्हीं की अासतीं है

मैं राह-ए-इश्क का तन्हा मुसाफिर
किसे आवाज़ दूँ, कोई नहीं है

'शमीम' उस को कहीं देखा है तुम ने
सुना है वो रग-ए-जाँ के करीं हैं

शमीम जयपुरी

रहम ऐ गम-ए-जानाँ बात अा गयी याँ तक

raham ai gham-e-jaanaaN baat aa gaii yaaN tak

रहम ऐ गम-ए-जानाँ बात अा गयी याँ तक
दश्त-ए-गर्दिश-ए-दौराँ और मेरे गरेबाँ तक

कौन सर बा कफ होगा, जश्न-ए-दार क्या होगा
जोक-ए-सरफरोशी है एक दुश्मन-ए-जाँ तक

हमसफीर फिर कोई हादसा हुआ शायद
इक सजब उदासी है गुलिस्ताँ से ज़िन्दाँ तक

हमनशीं बहारों ने कितने आशियाँ फूंके
हम तो कर ही क्या लेते, सो गये निगेहबाँ तक

इक हम ही लगायेंगे खार-ओ-खस को सीने से
वरना सब चमन में हैं, मौसम-ए-बहाराँ तक

मेरे दस्तक-ए-वहशत को आज रोक लो वरना
फसिला बहुत कम है हाथ से गरेबाँ तक

है 'शमीम' अज़ल ही से सिलसिला मुहब्बत का
हलका-ए-सलासिल से गेसू-ए-परेशाँ तक

शमीम जयपुरी

रात भर क्या क्या यकीं-ओ-वहम में चश्मक रही

raat bhar kya kya yaqeen-o-wehm mein chashmak rahi

रात भर क्या क्या यकीं-ओ-वहम में चश्मक रही
ये गुमां था या दर-ए-दिल पर कोई दस्तक रही

हम तो सारी उम्र अश्कों के सहारे जी लिये
जिन्दगी तो बेवफा थी इक तबस्सुम तक रही

उम्र भर सबकी निगाहों में खटकता ही रहा
जुर्म इतना था के हक-गोई मेरा मसलक रही

अब ना वो संग-ए-मलामत है ने वो तानों का शोर
उसकी बस्ती में ये रौनक भी मेरे दम तक रही

साया-ए-ज़ुल्फ-ए-सनम की याद तेरा शुक्रिया
रात अातिश खान-ए-दिल में बड़ी थंडक रही

शमीम जयपुरी

किसी लिबास की खुशबू जब उड़ के आती है

kisi libaas ki khushboo jab ud ke aati hai

किसी लिबास की खुशबू जब उड़ के आती है
तेरे बदन कि जुदाई बहुत सताती है
तेरा बगैर मुझे चैन कैसे पड़ता है
मेरे बगैर मुझे तुझे नींद कैसे आती है

मिन्नतें है खयाल कि तेरे
खूब गुजरी तेरे ख़याल के साथ
मैने एक ज़िन्दगी बसर कर दी
तेरे ना-दीदा ख़त-ओ-ख़याल के साथ

सारी अक्ल-ओ-होश की अाशायें
तुमने साँचें में जुनून में ढाल दीं
कर लिया था मैने अहद-ए-तर्क-ए-इश्क
तुमने फिर बाहें गले में डाल दीं

दिल में जिनका निशाँ भी ना रहा
क्यूँ ना चेहरों पे अब वो रंग खिलें
अब तो खाली है रूह जज्‍बों से
अब भी क्या हम तपाक से ना मिलें

मेरे और उसके दरमियाँ अब तो
सिर्फ एक रूबरू का रिश्ता है
हाये वो रिश्ता, हाये खामोशी
अब फकत गुफ्तगू के रिश्ता है

जौं एलिया

Sunday, October 7, 2007

कोई हालत नहीं ये हालत है

koi haalat nahin ye haalat hai

कोई हालत नहीं ये हालत है
ये तो आशोब्नाक सूरत है

अंजूमन में ये मेरी खामोशी
बर्दबारी नहीं है वहशत है

तुझसे ये गाह गाह का शिकवा
जब तलक है बस-गनीमत है

ख्वाहिशें दिल का साथ छोड़ गयीं
ये अज़ियत बड़ी अज़ियत है

लोग मसरूफ जानते है मुझे
या मेरा गम ही मेरी फूर्सत है

तंज़ पैरा-ए-तबस्सुम में
इस तकल्लुफ कि क्या ज़रूरत है

हमने देखा तो हमने ये देखा
जो नहीं है वो खूबसूरत है

वार करने को जानिसार अायें
ये तो ईसार है इनायत है

गर्म-जोशी और इस कदर क्या बात
क्या तुम्हे मुझसे कुछ शिकायत है

अब निकाल अाओ अपने अंदर से
घर में सामान की ज़रूरत है

आज का दिन भी ऐश से गुजरा
सर से पा तक बदन सलामत है

जौं एलिया

Saturday, October 6, 2007

पा-बा-गिल सब हें रिहा'ई की करे तदबीर कौन

paabagil sab haiN rihaaii ki kare tadbiir kaun

पा-बा-गिल सब हें रिहा'ई की करे तदबीर कौन
दस्त-बस्ता शह'र में खोले मेरी ज़जीर कौन

मेरा सर हाज़िर है लेकिन मेरा मुंसिफ देख ले
कर रहा है मेरे फर्द-ए-जुर्म को तहरीर कौन

मेरी चादर तो छीनी थी शाम की तनहा'ई ने
बे-रिदा'ई को मेरी फिर दे गया तश-हीर कौन

नींद जब ख़्वाबों से प्यारी हो तो ऐसे अह'द में
ख़्वाब देखे कौन और ख़्वाबों को दे ताबीर कौन

रेत अभी पिछले मकानों की ना वापस आ'ई थी
फिर लब-ए-साहिल घरोंदा कर गया तामीर कौन

सारे रिश्ते हिज्रतों में साथ देते हैं तो फिर
शह'र से जाते हु'ए होता है दामन-गीर कौन

दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी अाज़ाद हैं
देखना है खींचता है मुझपे पेहला तीर कौन

परवीन शकीर

ऐ मौत! उन्होने भुलाये जंमाने गुजर गये

ai maut unhein bhulaaye

ऐ मौत! उन्होने भुलाये ज़माने गुजर गये
आ जा कि ज़हर खाये ज़माने गुजर गये

ओ जाने वाले आ कि तेरे इन्तेज़ार में
रास्ते को घर बनाये ज़माने गुजर गये

गम है ना अब खुशी है ना उम्मीद है ना यास
सब से निजात पाये ज़माने गुजर गये

क्या लायक-ए-सितम भी नहीं अब मैं दोस्तों
पत्थर भी गर में आये ज़माने गुजर गये

जाने बहार फूल नहीं आदमी हूँ मैं
आ जा कि मुस्कुराये ज़माने गुजर गये

क्या क्या तवक्कुत थी आहों से ए 'खुमार'
ये तीर भी चलाए ज़माने गुजर गये

ख़ुमार बाराबँकवी

याद: दश्त-ए-तनहाई

yaad : dasht-e-tanhaii

दश्त-ए-तनहाई में ऐ जान-ए-जहाँ लरज़ाँ हैं
तेरी आवाज़ के साये, तेरे होठों के सराब
दश्त-ए-तनहाई में दूरी के खस-ओ-खाक कितने
खिल रहे हैं तेरे पेहलू के समन और गुलाब

उठ रही है कहीं कुरबत से तेरी साँस कि अाँच
अपनी खुशबू से सुलगती मधम मधम
दूर उफ्कार चमकती हुइ कतरा कतरा
खिल रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम

किस कदर प्यार से ऐ जान-ए-जहाँ रखा है
दिल के रुखसार पे इस वक्त तेरी याद ने हाथ
यूँ गुमाँ होता है गरचे अभी सुबह-ए-फिराक
ढल गया हिज्र का दिन, आ भी गयी वस्ल की रात

फैज़ अहमद फैज़

देखते देखते उतर भी गये

dekhte dekhte utar bhi gaye

देखते देखते उतर भी गये
उन के तीर अपना काम कर भी गये

हुस्न पर भी कुछ आ गये इलज़ाम
गो बहुत अहल-ए-दिल के सर भी गये

यूँ भी कुछ इश्क नेक नाम ना था
लोग बदनाम उसको कर भी गये

कुछ परेशान से थे भी अहल-ए-जुनूंन
गेसु-ए-यार कुछ बिखर भी गए

आज उन्हें मेहरबान सा पाकर
खुश हुए और जी में डर भी गए

इश्क में रूठ कर दो आलम से
लाख आलम मिले जिधर भी गये

हूँ अभी गोश पुर सदा और वो
ज़ेर-ए-लब कह के कुछ मुकर भी गये

फिराक गोरखपुरी

करता उसे बेकरार कुछ देर

karta use beqarar kuch der

करता उसे बेकरार कुछ देर
होता अगर इख्तियार कुछ देर

क्या रोयें फ़रेब-ए-आसमाँ को
अपना नहीं ऐतबार कुछ देर

आँखों में कटी पहाड़ सी रात
सो जा दिल-ए-बेक़रार कुछ देर

ऐ शहर-ए-तरब को जाने वालों
करना मेरा इन्तजार कुछ देर

बेकैफी-ए-रोज़-ओ-शब मुसलसल
सरमस्ती-ए-इन्तेज़ार कुछ देर

तकलीफ-ए-गम-ए-फिराक दायम
तकरीब-ए-विसाल-ए-यार कुछ देर

ये गुनचा-ओ-गुल हैं सब मुसाफिर
है काफिला-ए-बहार कुछ देर

दुनिया को सदा रहेगी नासिर
हम लोग हैं यादगार कुछ देर

नासिर काज़मी

Friday, October 5, 2007

हिज़ाबों में भी तु नुमायूँ नुमायूँ

hijaaboN meN bhii tuu numaayaaN numaayaaN

हिंज़ाबों में भी तू नुमायूँ नुमायूँ
फरोज़ाँ फरोज़ाँ दरख्शाँ दरख्शाँ

तेरे जुल्फ-ओ-रुख़ का बादल ढूंढता हूँ
शबिस्ताँ शबिस्ताँ चाराघाँ चाराघाँ

ख़त-ओ-ख़याल की तेरे परछाइयाँ हैं
खयाबाँ खयाबाँ गुलिस्ताँ गुलिस्ताँ

जुनूँ-ए-मुहब्बत उन आँखों की वहशत
बयाबाँ बयाबाँ गज़लाँ गज़लाँ

लपट मुश्क-ए-गेसू की तातार तातार
दमक ला'ल-ए-लब की बदक्शाँ बदक्शाँ

वही एक तबस्सुम चमन दर चमन है
वही पंखूरी है गुलिस्ताँ गुलिस्ताँ

सरासार है तस्वीर जमीतों(?) की
मुहब्बत की दुनिया हरासाँ हरासाँ

यही ज़ज्बात-ए-पिन्हाँ की है दाद काफी
चले आओ मुझ तक गुरेजाँ गुरेजाँ

"फिराक" खाज़ीं से तो वाकिफ थे तुम भी
वो कुछ खोया खोया परीशाँ परीशाँ

फिराक गोरखपुरी

जो था दिल का दौर गया मगर है नज़र में अब भी वो अंजुमन

jo thaa dil ka daur gayaa magar hai nazar meN ab bhi vo anjuman

जो था दिल का दौर गया मगर है नज़र में अब भी वो अंजुमन
वो खयाल-ए-दोस्त चमन चमन, वो जमाल-ए-दोस्त बदन बदन

अभी इब्तिदा-ए-हयात है, अभी दूर मंजिल-ए-इश्क है
अभी मौज-ए-खून है, नफस नफस, अभी ज़िन्दगी है कफन कफन

मेरे हम-नफस गया दौर जब फकत आशियानो कि बात थी
के है अाज बर्क की राअ में, मेरा भी चमन तेरा भी चमन

तेरे बहर-ए-बख्शीश-ओ-लुत्फ जो कभी हुई थी अता मुझे
मेरे दिल में है वही तशन्गी, मेरी रूह में है वही जलन

ना तेरी नज़र में जँचे कभी, गुल-ओ-गुन्चा में जो है दिलकशी
जो तू इत्तेफाक से देख ले कभी, खार में है जो बाँकपन

ये ज़मीं और उसकी वसतें, ना मेरी बनें ना तेरी बनें
मगर इस पे भी ये है ज़िद हमें, ये तेरा वतन वो मेरा वतन

वही मैं हुँ जिसका हर एक शेर एक आरज़ू का मजार है
कभी वो भी दिन थे के जिन दिनों, मेरी हर गज़ल थी दुल्हन दुलहन

ये नहीं के बज्म-ए-तरब में अब कोई नगमा-ज़न हि ना रहा
मैं अकेला इस लिये रह गया के बदल गय़ी है वो अंजुमन

मेरी शायरी है छुपी हूई मेरी ज़िन्दगी के हिजाब में
ये हिजाब उट्ठे तो अजब नहीं परे मुझ पे भी निगाह-ए-वतन

वो अजीब शेर-ए-फ़िराक था के है रूह आलम-ए-वज्द में
वो निगाह-ए-नाज़ जुबाँ जुबाँ, वो सुकूत-ए-नाज़ सुखन सुखन

जगन्नाथ आज़ाद

चाँद तनहा है अासमां तनहा

chaaNd tanhaa hai aasmaaN tanhaa

चाँद तनहा है आसमां तनहा
दिल मिला है कहाँ कहाँ तनहा

बुझ गयी आस छुप गया तारा
थर-थराता रहा धुँआ तनहा

ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तनहा है और जाँ तनहा

हम-सफर कोइ गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे तनहा तनहा

जलती बुझती सी रौशनी के परे
सिमटा सिमटा सा एक मकान तनहा

राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगे ये जहाँ तनहा

मीना कुमारी

शुक्रिया मोहिब साहब

मैं मोहिब साहब का शुक्रगुजार हुँ कि उन्होने अपनी वेबसाइट से गज़लें इत्यादि देने के लिये रजामंदी दे दी। मेरी कोशिश रहेगी कि मैं तमाम गजंलों को यहाँ देवनागरी में लिखूँ।