Friday, July 18, 2008

सिमटे बैठे हो क्यूं बुजदिलों कि तरह

simTe baithe ho kyuN buzdiloN ki tarah

सिमटे बैठे हो क्यूँ बुजदिलों की तरह
आओ मैदान में गाज़ियों की तरह

कौन रखता हमें मोतियों की तरह
मिल गये खाक में आँसुओं की तरह

नूर-ए-निखत से मामूर यादें तेरी
खुशबुओं की तरह, जगनुओं की तरह

रोशनी कब इतनी मेरे शहर में
जल रहे हैं मकाँ मशगलों की तरह

दाद दीजिये के हम जी रहे हैं वहाँ
हैं मुहाफिज जहाँ कातिलों की तरह

जिन्दगी अब हमारी खता बख्श दे
दोस्त मिलने लगे, महसिनों की तरह

कैसे अल्लाह वाले हैं ये ऐ खुदा
गुफ्तगू, मशवरे साजिशों की तरह

मेरी बातों पे हंसती है दुनिया अभी
मैं सुना जाऊंगा फैसलों की तरह

तुम भी दरबार में हाजिरी दो हाफिज
फिर रहे तो कहाँ मूफलिसों की तरह

हाफिज मेरठी

आइना-ए-खुलूस-ओ-वफा चूर हो गये

aaiinaa-e-khuloos-o-wafaa chuur ho gaye

आईना-ए-खुलूस-ओ-वफा चूर हो गये
जितने चिराग-ए-नूर थे, बेनूर हो गये

मालूम ये हुआ के वो रास्तते का साथ था
मंजिल करीब आयी तो हम दूर आ गये

मंजूर कब थी हमको वतन से ये दुरियाँ
हालात की जफाओं से मजबूर हो गये

कुछ आ गयी हम अहल-ए-वफा में भी तमकनत
कुछ वो भी अपने हुस्न पे मगरूर हो गये

चारागारों की ऐसी इनायत हुई हफीज़
के जो जख़्म भर चले थे वो नासूर हो गये

हफीज़ बनारसी

फूल पर जब किरन थर-थराई

http://aligarians.com/2005/12/phuul-per-jab-kiran-thhar_tharaii/

फूल पर जब किरण थरथराई
वो नशीली नजर याद आई

उनकी आमद का पैगाम सुन कर
भर गया और दर्द-ए-जुदाई

हम कहाँ और बज्म-ए-जानाँ
उनके जलवों ने की रहनुमाई

एक निगाह-ए-करम की बदौलत
बज्म-ए-दिल देर तक जगमगाई

हुस्न था इल्तिफा-ए-मुजस्सम
उमर ही कर गयी बे-वफाई

रात भर खून?? सितारे
तब सुहानी सहर मुस्कुराई

गुल-बा-दामन हैं हंसीं जलवे
वज्द कर ले नजर आजमाई

सिकंदर अली वज्द

Saturday, February 2, 2008

अब हक में बहारों के सबा है के नहीं है

ab haq meiN bahaaroN ke sabaa hai ke nahiiN hai

अब हक में बहारों के सबा है के नहीं है
फूलों पे वो पहली सी हवा के नहीं है

खुशबू की शहादत भी बड़ी चीज है लेकिन
??? तेरा नक्श-ए-कफ-ए-पा है के नहीं है

वो परतब-ए-रुख अपना हटा लें तो दिखा दूँ
के इन चाँद सितारों में जिया है के नहीं है

ये सोच के ?? नकीबों को पुकारो
रात अपने चरागों को हवा है के नहीं है

ये कौन खबर लाये के गुलशन में मेरे बाद
वो रस्म-ओ-राहे ?? है के नहीं है

जिस गम के लिये तूने किया, तर्क-ए-ताल्लुक
वो गम तुझे पहले से सिवा है के नहीं है

मैखाना खुले या ना खुले सिर्फ ये देखो
शीशों के खनखने की सदा है के नहीं है

ये तो कोई मंसूर बताये तो बताये
के सुली पे तड़पने में मजा है के नहीं है

आ जाओगे हालत की जद पर जो किसी दिन
हो जायेगा मालूम खुदा है के नहीं है

खामोश हैं लेकिन ये खबर सबको है दनिश
वो दुश्मन-ए-एहबाब-ए-वफा है के नहीं है

एहसान दनिश

Sunday, January 20, 2008

छुरी जिनके हाथों से खाना पड़े है

chhuri jinke haathoN se khaana paRe hai

छुरी जिनके हाथों से खाना पड़े है
गज़ल भी उन्ही को सुनाना पड़े है

तबीयत को काबू में लाना पड़े है
उट्ठे है कहाँ गम, उठाना पड़े है

कुछ आसान नहीं मंसब-ए-सुर्ख-रूई
कई बार मक्तल में जाना पड़े है

(मंसब-ए-सुर्ख-रूई : Position of honour; मक्तल: Gallows)

ना आ दर्दमंदों की महफिल में प्यारे
यहाँ उम्र भर दिल जलाना पड़े है

कलीम अजीज