aaiinaa-e-khuloos-o-wafaa chuur ho gaye
आईना-ए-खुलूस-ओ-वफा चूर हो गये
जितने चिराग-ए-नूर थे, बेनूर हो गये
मालूम ये हुआ के वो रास्तते का साथ था
मंजिल करीब आयी तो हम दूर आ गये
मंजूर कब थी हमको वतन से ये दुरियाँ
हालात की जफाओं से मजबूर हो गये
कुछ आ गयी हम अहल-ए-वफा में भी तमकनत
कुछ वो भी अपने हुस्न पे मगरूर हो गये
चारागारों की ऐसी इनायत हुई हफीज़
के जो जख़्म भर चले थे वो नासूर हो गये
हफीज़ बनारसी
Friday, July 18, 2008
आइना-ए-खुलूस-ओ-वफा चूर हो गये
Labels: गज़ल, शायर, हफीज़ बनारसी
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