Monday, December 17, 2007

ऐ जज़्बा-ए-दिल गर में चाहूँ हर चीज़ मुकाबिल आ जाये

ai jazbaa-e-dil gar maiN chaahuuN, har chiiz muqaabil aa jaaye

ऐ जज़्बा-ए-दिल गर में चाहूँ हर चीज़ मुकाबिल आ जाये
मंजिल के लिये दो गाम चलूँ और सामने मंजिल आ जाये

कश्ती को खुदा पर छोड़ भी दे, कश्ती का खुदा खुदा हाफिज़ है
मुश्किल तो नहीं इन मौजों में बहता हुआ साहिल आ जाये

ऐ दिल की लगी चल यूँ ही सही, चलता तो हूँ उनकी महफिल में
उस वक्त मुझे चौंका देना जब रंग पे महफिल आ जाये

ऐ राहबर-ए-कामिल चलाने को तैय्यार तो हूँ पर याद रहे
उस वक्त मुझे भटका देना जब सामने मंजिल आ जाये

हाँ याद मुझे तुम कर लेना आवाज़ मुझे तुम दे लेना
इस राह-ए-मुहब्बत में कोई दरपाइश जो मुश्किल आ जाये

अब क्यूँ धूँधूँ वो चश्म-ए-करम होने दे सितम बला-ए-सितम
में चाहता हूँ ऐ जज़्बा-ए-गम मुश्किल पस-ए-मुश्किल आ जाये

इस जज़्बा-ए-दिल के बारे में एक मशवरा तुम से लेता हूँ
उस वक्त मुझे क्या लाजिम है जब तुझ पे मेरा दिल आ जाये

ऐ बर्क-ए-तजली क्या तूने मुझको भी ंमूसा समझा है
मैं तूर नहीं जो हल जाऊँ जो चाहे मुकाबिल आ जाये

बेहजद लखनवी

1 comment:

Anonymous said...

This is very nice ghazal from Behzad Lucknawi. I enjoyed it very much reading the ghazal in Hindi script. Thanks for posting it on this site.
Sincerely
PAM