Wednesday, December 12, 2007

हर जलवे से एक दरस-ए-नुमू लेता हूँ

rubaaiyaat-o-qitaat

हर जलवे से एक दरस-ए-नुमू लेता हूँ
लबरेज़ कई जाम-ओ-सुबू लेता
पड़ती है जब आँख तुझपे ऐ जान-ए-बहार
संगीत की सरहदों को छू लेता हूँ

हर साज़ से होती नहीं एक धुन पैदा
होता है बड़े जतन से ये गुन पैदा
मीज़ाँ-ए-नशात-ओ-गम में सदियों तुल कर
होता है हालात में तव्जौ पैदा

सेहरा में जमाँ मकाँ के खो जाती हैं
सदियों बेदार रह के सो जाती हैं
अक्सर सोचा किया हुँ खल-वत में फिराक
तहजीबें क्युं् गुरूब हो जाती हैं

एक हलका-ए-ज़ंजीर तो ज़ंजीर नहीं
एक नुक्ता-ए-्तस्वीर तो तस्वीर नहीं
तकदीर ्तो कौमों की हुआ करती है
एक शख्स की तकदीर कोई तकदीर नहीं

महताब में सुर्ख अनार जैसे छूटे
(?) से कज़ा लचक के जैसे छूटे
वो कद है के भैरवी जब सुनाये सुर
???
गुन्चों से भी नर्म गुन्चगी देखी है

नाजुक कम कम शगुफ्तगी देखी है
हाँ, याद हैं तेरे लब-ए-आसूदा मुझे
तस्वीर-ए-सुकूँ-ए-जिन्दगी देखी है

जुल्फ-ए-पुरखम इनाम-ए-शब मोड़ती है
आवाज़ तिलिस्म-ए-तीरगी तोड़ती है
यूँ जलवों से तेरे जगमगाती है जमीं
नागिन जिस तरह केंचुली छोड़ती है

फिराक गोरखपुरी

No comments: