shikast-e-shauq ko takmeel-e-aarzuu kahiye
शिकस्त-ए-शौक को तामील-ए-आरजू कहिये
के तिश्नगी को भी पैमान-ओ-सुबू कहिये
ख़याल-ए-यार को दीजिये विसाल-ए-यार का नाम
शब-ए-फिराक को गेसू-ए-मुश्कबू कहिये
चराग-ए-अंजुमन हैरत-ओ-नजारा हैं
लालारू जिनहें अब बाब-ए-आरजू कहिये
शिकायतें भी बहुत हैं हिकायतें भी बहुत
मजा तो जब है के यारों के रु-ब-रू कहिये
महक रही है गज़ल जिक्र-ए-जुल्फ-ए-खुबाँ से
नसीम-ए-सुब्ह की मानिंद कू-ब-कू कहिये
ऐ हुक्म कीजिये फिर खंजरों की दिलजारी
जहाँ-ए-जख्म से अफसाना-ए-गुलू कहिये
जुबाँ-ए-शोख से करते है पुरशिश-ए-अहवाल
और उसके बाद ये कहते हैं आरजू कहिये
किता
है जख्म जख्म मगर क्यूँ ना जानिये उसे फूल
लहू लहू है मगर क्यूँ उसे लहू कहिये
समझिये कामत-ए-याराँ-ए-कजअदा की तरह
??? पाये निगाराँ ???
जहाँ जहाँ भी खिजाँ है वहीं वहीं है बहार
चमन चमन यही अफसाना-ए-नुमू कहिये
जमीँ को दीजिये दिल-ए-मुद्दा तलब का पयाम
खिजाँ को वसत-ए-दामाँ-ए-आरजू कहिये
साँवरिये गज़ल अपनी बयाँ-ए-गालिब से
जबाँ-ए-मीर में भी हाँ कभू कभू कहिये
मगर वो हर्फ धड़कने लगे जो दिल की तरह
मगर वो बात जिसे अपनी गुफ्तगू कहिये
मगर वो आँख के जिसमें निगाह अपनी हो
मगर वो दिल जिसे अपनी जुस्तजू कहिये
किसी के नाम पे सरदार खो चुके हैं जिसे
उसी को अह्ल-ए-तमन्ना की आबरू कहिये
अली सरदार जाफरी
Wednesday, December 26, 2007
शिकस्त-ए-शौक को तामील-ए-आरजू कहिये
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Monday, December 17, 2007
ऐ जज़्बा-ए-दिल गर में चाहूँ हर चीज़ मुकाबिल आ जाये
ai jazbaa-e-dil gar maiN chaahuuN, har chiiz muqaabil aa jaaye
ऐ जज़्बा-ए-दिल गर में चाहूँ हर चीज़ मुकाबिल आ जाये
मंजिल के लिये दो गाम चलूँ और सामने मंजिल आ जाये
कश्ती को खुदा पर छोड़ भी दे, कश्ती का खुदा खुदा हाफिज़ है
मुश्किल तो नहीं इन मौजों में बहता हुआ साहिल आ जाये
ऐ दिल की लगी चल यूँ ही सही, चलता तो हूँ उनकी महफिल में
उस वक्त मुझे चौंका देना जब रंग पे महफिल आ जाये
ऐ राहबर-ए-कामिल चलाने को तैय्यार तो हूँ पर याद रहे
उस वक्त मुझे भटका देना जब सामने मंजिल आ जाये
हाँ याद मुझे तुम कर लेना आवाज़ मुझे तुम दे लेना
इस राह-ए-मुहब्बत में कोई दरपाइश जो मुश्किल आ जाये
अब क्यूँ धूँधूँ वो चश्म-ए-करम होने दे सितम बला-ए-सितम
में चाहता हूँ ऐ जज़्बा-ए-गम मुश्किल पस-ए-मुश्किल आ जाये
इस जज़्बा-ए-दिल के बारे में एक मशवरा तुम से लेता हूँ
उस वक्त मुझे क्या लाजिम है जब तुझ पे मेरा दिल आ जाये
ऐ बर्क-ए-तजली क्या तूने मुझको भी ंमूसा समझा है
मैं तूर नहीं जो हल जाऊँ जो चाहे मुकाबिल आ जाये
बेहजद लखनवी
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साहिर हूँ मेरा काम नहीं फलसफा-रानी
shaaiir huN meraa kaam nahiiN falsafaa-raanii
साहिर हूँ मेरा काम नहीं फलसफा-रानी
खलती है मुझे ठोस नताइज की गरानी
इंसान की तस्वीर नयी हो के पुरानी
मतलूब मुझे हुस्न है और हुस्न-ए-मानी
अल्लाह के बंदों से मुझे बैर नहीं है
यानी मेरी दुनिया में कोई गैर नहीं है
कौमों की हिलायकत का हुनर देख रहा हूँ
ये रोज़-ओ-शब-ओ-शाम-ओ-सहर देख रहा हूँ
हफीज़ जलंधरी
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ये सब्जमंद-ए-चमन है जो लहलहा ना सके
ye sabzah.mand-e-chaman hai jo lahlahaa na sake
ये सब्जमंद-ए-चमन है जो लहलहा ना सके
वो गुल हे ज़ख्म-ए-बहाराँ जो मुस्कुरा ना सके
ये आदमी है वो परवाना, सम-ए-दानिस्ता
जो रौशनी में रहे, रौशनी को पा ना सके
ये है खुलूस-ए-मुहब्बत के हादीसात-ए-जहाँ
मुझे तो क्या, मेरे नक्श-ए-कदम मिटा ना सके
ना जाने आखिर इन आँसूओ पे क्या गुजरी
जो दिल से आँख तक आये, मगर बहा ना सके
करेंगे मर के बका-ए-दवाम क्या हासिल
जो ज़िन्दा रह के मुकाम-ए-हयात पा ना सके
मेरी नज़र ने शब-ए-गम उन्हें भी देख लिया
वो बेशुमार सितारे के जगमगा ना सके
ये मेहर-ओ-माह मेरे, हमसफर रहे बरसों
फिर इसके बाद मेरी गर्दिशों को पा ना सके
घटे अगर तो बस एक मुश्त-ए-खाक है इंसान
बढ़े तो वसत-ए-कौनैन में समा ना सके
ज़िगर मुरादाबादी
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Wednesday, December 12, 2007
हर जलवे से एक दरस-ए-नुमू लेता हूँ
rubaaiyaat-o-qitaat
हर जलवे से एक दरस-ए-नुमू लेता हूँ
लबरेज़ कई जाम-ओ-सुबू लेता
पड़ती है जब आँख तुझपे ऐ जान-ए-बहार
संगीत की सरहदों को छू लेता हूँ
हर साज़ से होती नहीं एक धुन पैदा
होता है बड़े जतन से ये गुन पैदा
मीज़ाँ-ए-नशात-ओ-गम में सदियों तुल कर
होता है हालात में तव्जौ पैदा
सेहरा में जमाँ मकाँ के खो जाती हैं
सदियों बेदार रह के सो जाती हैं
अक्सर सोचा किया हुँ खल-वत में फिराक
तहजीबें क्युं् गुरूब हो जाती हैं
एक हलका-ए-ज़ंजीर तो ज़ंजीर नहीं
एक नुक्ता-ए-्तस्वीर तो तस्वीर नहीं
तकदीर ्तो कौमों की हुआ करती है
एक शख्स की तकदीर कोई तकदीर नहीं
महताब में सुर्ख अनार जैसे छूटे
(?) से कज़ा लचक के जैसे छूटे
वो कद है के भैरवी जब सुनाये सुर
???
गुन्चों से भी नर्म गुन्चगी देखी है
नाजुक कम कम शगुफ्तगी देखी है
हाँ, याद हैं तेरे लब-ए-आसूदा मुझे
तस्वीर-ए-सुकूँ-ए-जिन्दगी देखी है
जुल्फ-ए-पुरखम इनाम-ए-शब मोड़ती है
आवाज़ तिलिस्म-ए-तीरगी तोड़ती है
यूँ जलवों से तेरे जगमगाती है जमीं
नागिन जिस तरह केंचुली छोड़ती है
फिराक गोरखपुरी
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